मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा का संक्षिप्त एवं भाषा वैज्ञानिक विशेषता
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा का संक्षिप्त एवं भाषा वैज्ञानिक विशेषता?
(2.प्रारंभिक हिंदी की विशेषताएँ एवं हिंदी पूर्व की भाषाओं में संक्षिप्त साहित्य परम्परा का संक्षिप्त परिचय)
प्रश्न-2.मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए, इनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
अथवा
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी भाषा वैज्ञानिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा-
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के व्याकरणिक नियमों की जटिलता के कारण उसका प्रचलन आम जनता के लिए कठिन हो गया था। कहने का मतलब संस्कृत भाषा जनता से दूर हो गई थी। साथ ही लोगों की भाषाएँ लगातार विकसित हो रही थीं। जब जनता में अपभ्रंस भाषा का प्रयोग बढ़ा तो संस्कृत शिक्षित लोगों तक सीमित हो गई। इन बदलाओं के कारण मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा का उदय हुआ। मध्य भारतीय आर्य भाषाकाल में तीन भाषाएँ विकसित हुईं-
(1) पालि भाषा (500 ई.पू. से 1 ई. तक)
(2) प्राकृत भाषा (1 ई. से 500 ई. तक)
(3) अपभ्रंश भाषा (500 ई. से 1000 ई. तक)
(1) पालि भाषा (500 ई.पू. से 1 ई. तक)-
पालि को मागधी भाषा भी कहा जाता है। इसे बौद्ध की भाषा भी कहते हैं। बौद्ध साहित्य पालि भाषा में लिखा गया है। त्रिपिटक पालि भाषा में लिखे गए हैं। त्रिपिटकों के नाम इस प्रकार हैं- सुत्त पिटक, विनय पिटक, अभिधम्म पिटक।
पालि भाषा की विशेषताएँ-पालि भाषा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1-पालि में तीन लिंग होते हैं।
2-पालि में वचनों की संख्या दो होती है।
3-पालि में द्विवचन का प्रयोग नहीं किया जाता है।
4-इसमें श, ष, स में से सिर्फ ‘स’ का प्रयोग होता है।
5-पालि में तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग मिलता है।
6-इसमें ‘ऋ’ के स्थान पर कहीं ‘उ’ और कहीं ‘अ’ का प्रयोग हुआ है।
(2) प्राकृत भाषा (1 ई. से 500ई. तक)-
प्राकृत भाषा बोलचाल की भाषा होने के कारण पंडितों में प्रचलित नहीं थी। संस्कृत नाटकों के अधम पात्र इस बोली का प्रयोग करते थे। जैन साहित्य प्राकृत भाषा में ही लिखा गया है। प्राकृत भाषा के पांच प्रकार हैं-
(i) शौरसेनी प्राकृत भाषा
(ii) पैशाची प्राकृत भाषा
(iii) महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा
(iv) अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा
(v) मागधी प्राकृत भाषा
प्राकृत भाषा की विशेषताएँ-
प्राकृत भाषा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1-इसमें द्विवचन का प्रयोग नहीं किया जाता है।
2-इसमें ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग किया जाता।
3-प्राकृत में तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग मिलता है।
4-शब्दों में अर्थ की दृष्टि से भी परिवर्तन हुए हैं।
5-इसकी कुछ ध्वनियों में परिवर्तन दिखाई देता है।
6-इसमें ‘प’ का ‘व’ हो गया है। जैसे- ताप का ताव।
(3) अपभ्रंश भाषा (500ई. से 1000 ई. तक)-
अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है-बिगड़ा हुआ। इसे अवहठ, अवहट्ठ, अवहत्थ, देवभाषा, देशी भाषा आदि नामों से बोला जाता है। जो भाषा सुसंस्कृत न होकर बोलचाल की भाषा बन जाती है तो उसे बिगड़ी हुई भाषा माना जाता है। उसे ही अपभ्रंश की संज्ञा दी जाती है। हिंदी की जननी अपभ्रंश को माना जाता। आधुनिक आर्य भाषाओं का विकास इसी से हुआ है।
अपभ्रंश भाषा की विशेषताएँ- अपभ्रंश भाषा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1-अपभ्रंश की महत्वपूर्ण विशेषता सरलीकरण प्रवृत्ति है।
2-इसके लिंग व वचन दो हैं।
3-इसमें द्विवचन और नपुंसकलिंग का प्रयोग नहीं किया जाता है।
4-इसमें तद्भव और देशज शब्दों का अधिक प्रयोग मिलता है।
5-अपभ्रंश में शब्दों का स्थान निश्चित हो गया है।
6-अपभ्रंश की विशेषता आयोगात्मक है।
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डॉ. अजीत भारती