ल्हासा की ओर सार
ल्हासा की ओर सार क्या है ?
पाठ का सार जानने से पहले पाठ में आये लेखक के मित्र सुमति का संक्षेप परिचय जान लेते हैं-
सर्वप्रथम सुमति का परिचय – वह लेखक को यात्रा के दौरान मिला जो एक मंगोल भिक्षु था। उसका नाम लोब्ज़ङ्शेख था। इसका अर्थ है सुमति प्रज्ञ।
अपनी सुविधा के लिए लेखक उसे सुमति कहकर बुलाता था।
सार या सारांश
(1)
‘ल्हासा की ओर एक’ यात्रा – वृत्तान्त है। इस पाठ में राहुल सांकृत्यायन (लेखक) ने नेपाल से तिब्बत की यात्रा का रोमांचक वर्णन किया है जो उन्होंने सन 1929-30 में नेपाल के रास्ते से की थी। नेपाल – तिब्बत मार्ग नेपाल से तिब्बत आने-जाने का मुख्य मार्ग है ल्हासा की ओर चूँकि उस समय भारत के लोगों को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी, इसलिए उन्होंने यह यात्रा एक भिखमंगों के वेश में की थी। लेखक ने यात्रा बहुत वर्ष पहले थी, जब फरी- कलिङ्पोङ् का रास्ता नहीं बना था, तो नेपाल से जाने का एक ही रास्ता था। इस रास्ते पर नेपाल के लोगों के साथ-साथ भारत के लोग भी जाते थे।
(2)
यह रास्ता व्यापारिक और सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए इसे लेखक ने मुख्य रास्ता बताया है। तिब्बत में जाति – पाँति, छुआछूत नहीं है । वहाँ की औरतें परदा नहीं करतीं हैं। निम्न स्तर के भिखमंगों को छोड़कर कोई भी अपरिचित व्यक्ति भी घर के अन्दर जा सकता है और वह घर की किसी भी महिला को चाय, मक्खन और सोडा – नमक आदि देकर अपने लिए चाय बनवा सकता है अगर आपको भरोसा न हो कि वे तुम्हारा सामान निकाल लेंगे तो आप जाकर देख भी सकते हैं। परित्यक्त(छोड़ा हुआ) चीनी किले से जब लेखक चला तो एक आदमी राहदारी माँगने आया। लेखक ने उस व्यक्ति को दो चिटें दे दीं। राहदारी देकर थोङ्ला के पहले के आखिरी गाँव में पहुँच गए। यहाँ सुमति की जान- पहचान के कारण ठहरने के लिए अच्छी जगह मिल गई।
(3)
पांच साल बाद वे लोग इसी रास्ते से लौटे थे तब उन्हें रहने की जगह नहीं मिली थी और एक गरीब के झोपड़ी में ठहरना पड़ा था क्योंकि वे भिखारी नहीं बल्कि भद्र(भला) यात्री के वेश में थे।अगले दिन राहुल जी और उनके मित्र सुमति जी को एक खतरनाक जगह डाँडा थोङ्ला पार करना था। ये तिब्बत में सबसे खतरे की जगह थी। सोलह – सत्रह हजार फीट ऊँची होने के कारण दूर-दूर तक कोई गाँव नहीं दिखाई पड़ रहे थे ।यह डाकुओं के छिपने की सबसे अच्छी जगह थी। कानून व्यवस्था ठीक न होने के कारण डाकू लोगों को लूटकर उनका खून कर देते थे।
(4)
लेखक और उनका मित्र भिखारी के वेश में थे इसलिए उन्हें हत्या का भय नहीं था परन्तु ऊँचाई का डर बना था। दूसरे दिन उन्होंने डाँडे की चढ़ाई घोड़े से की जहाँ उन्हें दक्षिण – पूरब की ओर बर्फ और हरियाली न होने के कारण नंगे पहाड़ दिखे । सबसे ऊँचे स्थान पर डाँडे के देवता का स्थान था। उतरते समय लेखक का घोडा धीमें चलने के कारण थोड़ा पीछे चलने लगा और वे रास्ता भटक गए, जिसकी बजह से वे डेढ़ मील आगे चले गए और पता चलने पर वापस आकर दाहिने तरफ चल पड़े, जिससे लेखक को देर हो गयी।देर होने कारण सुमित नाराज हो गया परन्तु जल्द ही गुस्सा ठंडा हो गया और वे लङ्कोर में एक अच्छी जगह पर रुके।
वे अब तिङ्ऱी के मैदान में थे जो की पहाड़ों से घिरा टापू था, सामने एक छोटी सी पहाड़ी दिखाई दे रही थी जिसका नाम तिङ्ऱी – समाधि – गिरी था। आसपास के गाँवों में सुमति के जान – पहचान वाले बहुत थे वे उनसे मिलना चाहते थे परन्तु लेखक ने मना कर दियासुमति मान गए और उन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया।
(5)
वे सुबह देर से निकले जिसके कारण उन्हें तेज धूप का सामना करना पड़ रहा था। सुमति यजमान से मिलना चाहता था इसलिए उसने बहाना बनाकर शेकर विहार की ओर चलने को कहा।तिब्बत की जमीन छोटे-बड़े जागीरदारों में बटी थी। इन जागीरों का बड़ा हिस्सा मठों(विहारों – बौद्ध भिक्षुओं के झोपड़ीनुमा घर) के अधीन था। अपनी – अपनी जागीर में हर जागीरदार कुछ खेती खुद भी करता था। जिसके लिए मजदूर उन्हें बेगार(फ्री में) में मिल जाते थे।
(6)
लेखक शेकर विहार की खेती के मुखिया भिक्षु नम्से से मिले। वहाँ एक मंदिर था जिसमें बुद्ध वचन की हस्तलिखित(हाथों से लिखी हुई) 103 पोथियाँ(किताबें) रखी थीं।पोथियाँ मोटे-मोटे अक्षरों में लिखी थींएक – एक पोथी 15- 15 सेर की रही होगी। लेखक वहीं आसन जमाकर पुस्तकों में रम गया।इसी समय सुमति ने निकट के अपने यजमानों से मिलकर आने के लिए लेखक से पूछा तो उसने अनुमति दे दी।दोपहर तक सुमति वापस आ गया। चूँकि तिङ्ऱी वहाँ से बहुत दूर नहीं था। अगले दिन उन्होंने अपना सामान पीठ पर रखा और नम्से से विदा लेकर चल दिए।
ल्हासा की ओर सार