भक्तिकाल और रीतिकाल में कौन अधिक समृद्ध

भक्तिकाल और रीतिकाल में कौन अधिक समृद्?

बी.ए.(प्रथम वर्ष)(प्रथम सेमेस्टर)/हिंदी/(हिंदी काव्य)

                (महत्वपूर्ण प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न-2. हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की समृद्धता का वर्णन कीजिए।

अथवा

भक्तिकाल, रीतिकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।

अथवा

भक्तिकाल की सांस्कृतिक चेतना पर प्रकाश डालिए।

अथवा

भक्तिकाल और रीतिकाल में कौन अधिक समृद्ध है?

अथवा

हिंदी साहित्य में भक्तिकाल और रीतिकाल में कौन अधिक समृद्ध है? तर्क देकर स्पष्ट कीजिए।

अथवा

भक्तिकाल का रीतिकाल से अधिक समृद्ध के कौन-कौन से कारण हैं ?

उत्तर-हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समय के अनुसार मनुष्य की प्रवृत्तियाँ और विचार बदलते रहते हैं।

उसी प्रकार से हिंदी साहित्य का प्रारंभ जिन वीरगाथाओं, नाथ, सिद्ध और जैन मुनि की रचनाओं से हुआ था, वह आज बदल गया है। आज हिंदी साहित्य काल और उपकालों में विभाजित होकर समृद्ध हो चुका है।

 1.भक्तिकाल और रीतिकाल-

हिंदी साहित्य के मध्यकाल के अंतर्गत दो काल आते हैं-भक्तिकाल और मध्यकाल।

इन दोनों कालों का अपना-अपना महत्व है।

अब प्रश्न ये आता है कि इनमें से अधिक महत्वपूर्ण कौन-सा काल है?

यह कहना थोड़ा कठिन है।

भक्तिकाल को भक्ति चेतना और रीतिकाल को रीति ग्रंथों और शृंगार एवं नए प्रयोगों की रचनाओं के लिए जाना जाता है।

सही मायने में दोनों में कौन अधिक समृद्ध है।

जहाँ रीतिकाल में नायक-नायिकाओं की प्रेम लीलाओं और उनके श्रृंगार-सजावट को अधिक प्रकट किया गया है।

इसमें प्रेम और श्रृंगार को जरुरी माना गया है।

इस प्रकार की विशेषताएँ भक्तिकाल में भी मिलती हैं लेकिन संतुलित रूप में।

रीतिकाल सीमित परिधि में बंधा हुआ है वहीँ भक्तिकाल व्यापक रूप में दिखाई देता है।

अतः हम कह सकते हैं कि भक्तिकाल, रीतिकाल से अधिक समृद्ध है।

2-भक्तिकाल, रीतिकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध

यह बात सच है कि भक्तिकाल को रीतिकाल से अधिक समृद्ध माना गया है। भक्तिकाल सभी कालों से अधिक व्यापक, विशेष और अधिक प्रभावशाली है। सभी विद्वानों ने हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को सबसे अच्छा काल माना है। इस काल के सामने कोई काल नहीं ठहरता है। आधुनिककाल में भी व्यापकता और विविधता है लेकिन भक्तिकाल जैसी गहराई और अनुभूति नहीं है। रीतिकाल के सभी आचार्य बनकर शब्दों से खिलवाड़ करते रहे और अपने आश्रयदाताओं को खुश करने के लिए नायक-नायिकाओं के अदाकारी को दिखाकर धन कमाते रहे। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है, इसी का नाम भक्ति साहित्य है

अतः हम कह सकते हैं कि रीतिकाल, भक्तिकाल से हल्का दिखाई पड़ता है।   

3-भक्तिकाल समृद्धि के कारण- भक्तिकाल समृद्ध के निम्न कारण हैं-

  (i) उद्देश्य और प्रेरणा-

भक्तिकाल के काव्य में  कोई न कोई उद्देश्य मिलता है जो प्रेरणा देने वाला होता है। उसे अनुकरण किया जा सकता है। इसमें अध्यात्म और मानव जीवन के मूल्य समाहित हैं। जबकि रीतिकाल में ये उद्देश्य नहीं हैं।  

(ii) आदर्श और उच्च विचारधारा-

इसमें संतों-सूफियों और भक्तों के आदर्श मिलते हैं। आदर्श भक्ति, साफ-सुथरा चरित्र और सरस लीलाओं का चित्रण किया गया है। उच्च विचारधारा और स्मरणीय आदर्श दिखाई देते हैं, जो रीतिकाल में उपलब्ध नहीं हैं।

(iii) भावों में मधुरता-

भक्तिकाल का साहित्य रीतिकाल की तुलना में इसलिए भी विशेष है कि उसमें भावों की मधुरता अधिक मिलती है। जिसे सूर, तुलसी, मीरा और जायसी आदि की रचनाओं में देखा जा सकता है। वहीं रीतिकाल में भावों की मधुरता ठहरे हुए तालाब का सौन्दर्य जरुर प्रस्तुत करती है लेकिन वह पानी गंधा भी हो सकता है।

(iv) लोक दृष्टि की व्यापकता­-

भक्तिकाल में रीतिकाल की अपेक्षा लोकदृष्टि व्यापक है। ये व्यापकता रीतिकाल में नहीं दिखाई देती है। भक्तिकाल के कवि समाज के साथ थे, सुधार करते रहते थे। कभी समाज से भागे नहीं। समाज में ही रहकर समाज को सही दिशा देते रहे। भक्तिकाल ने लोगों को सच्चे जीवन से परिचय कराया। लोक दृष्टि की सबसे अच्छी पहचान तुलसीदास ने कराई है। जबकि रीतिकाल में ये सब बातें नहीं दिखाई देती हैं।

(v) समन्वय की भावना-

भक्तिकाल के काव्य में समन्वय की भावना दिखाई देती है। भक्त एवं संत कवियों की रचनाओं ने पूरे भारत को एकता के सूत्र में बाँधने का काम किया है जबकि रीतिकाल में ये भावना नजर नहीं आती है। कृष्ण भक्त कवियों ने सभी के मन में ब्रज के प्रति आकर्षण पैदा किया है। संत और भक्त कवियों की वाणी ने सभी के बीच समन्वय की भावना को प्रकट किया है।  

(vi)

संस्कृति, धर्म और नीति-भक्तिकाल संस्कृति, धर्म और नीति को प्रस्तुत करता है। भक्तिकाल में भारतीय संस्कृति की सभी विशेषताएँ मिलती हैं। जबकि ऐसा रीतिकाल में नहीं है। संस्कृति, धर्म, दर्शन, सभ्यता, आचार और व्यवहार सभी का सुंदर वर्णन दिखाई देता है। सूर, कबीर, तुलसी, मीरा और जायसी कवियों में उक्त विशेषताएँ हैं। कबीर की साखियाँ, सूर का भ्रमरगीत, तुलसीदास का रामचरितमानस और मीरा की वाणी आदि सभी में कोई न कोई सन्देश रहता है। तुलसी ने राम और सीता का आदर्श चरित्र दिखाया है। सूरदास और नंददास कवियों ने कृष्ण और राधा के श्रृंगार का सुंदर वर्णन किया है लेकिन रीतिकाल में अश्लील चित्रण आश्रयदाताओं को खुश करने के लिए करते थे।

(vii)

भक्ति, धर्म और दर्शन का संगम-हिंदी साहित्य के इस काल में भक्ति, धर्म और दर्शन का समागम मिलता है। कबीर, जायसी, तुलसी, सूर, मीरा और रसखान आदि कवियों की रचनाओं में ये सभी विशेषताएँ दिखाई देती हैं जबकि रीतिकाल के कवियों में ऐसी कोई विशेषताएँ नहीं दिखाई देती हैं। इन बातों में रीतिकाल, भक्तिकाल से कमजोर नजर आता है।

(viii) निष्कर्ष-

अतः हम कह सकते हैं कि भक्तिकाल का क्षेत्र बहुत व्यापक, अनुकरणीय और प्रभावशाली है। रीतिकाल में भक्तिकाल जैसी व्यापकता, उदारता, मधुरता और धार्मिक दर्शन नहीं मिलते हैं। इस दृष्टि से हिंदी साहित्य में भक्तिकाल, रीतिकाल से अधिक समृद्ध है।

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भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि और विकासhttps://hindibharti.in/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%86%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A4%AD%E0%A5%82/

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डॉ. अजीत भारती

By hindi Bharti

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