हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में शुक्लोत्तर इतिहासकारों का योगदान
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में शुक्लोत्तर इतिहासकारों का योगदान?-भारतीय ज्ञान परम्परा के अंतर्गत आदिकालीन, मध्यकालीन हिंदी काव्य का इतिहास एवं इतिहास लेखन की परम्परा का विकास
प्रश्न-2.हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में शुक्लोत्तर इतिहासकारों का योगदान बताइए।
उत्तर-हिंदी साहित्य के इतिहास की परम्परा में सबसे ऊँचे स्थान पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। उन्होंने सन् 1929 ई. में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखा था। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में शुक्लोत्तर इतिहासकार निम्नलिखित हैं- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास लेखन के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का इस क्षेत्र में आगमन हुआ। उनकी ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ हिंदी साहित्य के लिए नयी दिशा प्रदान करती है। उनके अनुसार भक्ति काल का उद्भव न हिन्दुओं की निराशा और न ही इस्लाम की प्रक्रिया से हुआ है। दक्षिण के वैष्णव भक्तों के भक्ति अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान थी।
इसी प्रकार उन्होंने संत काव्य-
परम्परा के स्रोतों का अनुसंधान करते हुए सिद्धों और नाथपंथियों की वाणियों विचार, पद्धतियों व शैलियों के अध्ययन द्वारा यह स्पष्ट किया कि कबीर आदि किस प्रकार प्रभावित हैं।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचना ‘हिंदी साहित्य उद्भव और विकास’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’ में विचारों को सही ढंग से प्रकट किया है। आचार्य द्विवेदी जी एक सशक्त इतिहासकार थे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ही साथ-
साथ डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में पूरे ग्रंथ को सात प्रकरणों में बाँटा है। उन्होंने युगों में थोडा बदलाव करके सरल भाषा में लिखा है। जैसे लम्बे-लम्बे नामों के स्थान पर संतकाव्य और प्रेमकाव्य आदि का प्रयोग किया है। वीरगाथाकाल को चारणकाल का नाम दिया। उन्होंने ‘स्वयंभू’ को अपभ्रंश का पहला कवि माना है। वर्माजी ने रामचंद्र के शुक्ल के इतिहास को विस्तार दिया है। वर्माजी के लेखन की शैली और सरसता के कारण उनका इतिहास अधिक लोकप्रिय हुआ है। लेकिन पाठकों को इस बात की कमी लगी कि उनका साहित्य भक्तिकाल तक ही सीमित रहा।
नागिरी प्रचारिणी….
……सभा द्वारा भी ‘हिंदी साहित्य का वृहद इतिहास’ लिखा गया। इसे लिखने के लिए कुछ सिद्धांतों और पद्धतियों का निर्धारण किया गया था। इसके सोलह खंड हैं। प्रत्येक खंड के संपादक के लिए अलग-अलग लेखकों का सहारा लिया गया था।
उपर्युक्त इतिहास ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य कई ग्रथ लिखे गए और लिखे भी जा रहे हैं। डॉ. भागीरथ मिश्र का ‘हिंदी काव्यशास्त्र का इतिहास’, डॉ. नगेन्द्र की ‘रीतिकाव्य की भूमिका’, श्री परशुराम चतुर्वेदी का ‘उत्तरी भारत की संत परम्परा’, श्री प्रभुदयाल मीतल का ‘चैतन्य सम्प्रदाय और उसका साहित्य’, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, डॉ. टीकम सिंह तोमर का ‘हिंदी वीरकाव्य’, डॉ.मोतीलाल मेनारिया की ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’, डॉ.नलिनी विलोचन शर्मा का ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ आदि हैं।
हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन अनेक रूपों में प्रगति कर रहा है। शुक्लोत्तर लेखकों ने न केवल विश्व इतिहास दर्शन के मूल्यवान सिद्धांतों
और प्रयोगों को अंगीकृत किया है। उन्होंने ऐसे कई सिद्धांत भी प्रस्तुत किये हैं जिनका दूसरे भाषाओँ के इतिहासकार भी अनुकरण करते हैं।
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डॉ. अजीत भारती
हिंदी साहित्य के इतिहास on line